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Niharika Sharma

जड़ों में बसता अपनत्व – इस्मत चुगताई की कहानी जड़ें

Updated: Jun 8, 2022


उर्दू साहित्य की प्रतिष्ठित लेखिका इस्मत चुगताई का कथा साहित्य स्त्री चेतना और विभाजन की त्रासदी को दर्शाता है। इस्मत चुगताई को कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, राशिद जहां, सादत हसन मंटों के साथ उर्दू के शीर्षस्थ कहानीकारों में गिना जाता है। 1947 ई. के देश विभाजन ने उर्दू,हिंदी और पंजाबी लेखकों पर गहरा प्रभाव डाला था, विभाजन ने तत्कालीन लेखकों को विचलित कर दिया था और उस विचलित मन ने वही कथा लिखी जो उसनें उस समय अपने आस पास देखा और अनुभव किया, कुछ कहानियां जहाँ विभाजन की भयानकता को प्रस्तुत करती हैं,वहीँ कुछ कहानियां यह दर्शाती हुई नज़र आई हैं कि प्रेम की भावना से ऊपर कुछ नहीं हो सकता, विभाजन भी नहीं!


“अपना वतन है किस चिड़िया का नाम ? लोगों! बताओं तो वो है कहाँ अपना वतन, जिस मिट्टी में जन्म लिया जिसमें लोट-पोट कर बढ़े पले,वही अपना वतन न हुआ तो फ़िर जहाँ चार दिन को जा कर बस जाओ वो कैसे अपना वतन हो जाएगा ?” जड़े कहानी में जब ये प्रश्न उठता है तो मानो लगता है ये प्रश्न केवल कहानी की उस बूढी औरत का ही नहीं बल्कि हर उस हिन्दुस्तानी का था जिसे अपनी जड़ों से उखाड़ दिया गया था, जिस वतन में उस बूढी औरत ने अपना अधिकांश जीवन व्यतीत किया विभाजन के कारण उसे अपने लोग, अपनी स्मृतियाँ और अपना वतन छोड़ कर जाने के लिए बोला जा रहा है, आखिर उसका पाप ही क्या था?


दो परिवार( हिंदी और मुस्लिम) जो धर्म से भले ही अलग थे पर भावात्मक स्तर पर समान थे, “मारवाड़ की रियासतों के हिन्दू और मुसलमान की इस कदर मिलती-जुलती मुआशरत है कि उन्हें नाम, सूरत या लिबास से भी बाहर वाले मुश्किल से पहचान सकते हैं”। कहानी में दो परिवारों के बीच इतना अपनापन था कि सुख-दुःख में एक दूसरे के साथ खड़े रहते थे लेकिन बात जब मुल्क छोड़ने की आयी तो ‘उन दो झंडों ( तिरंगा झंडा और लीग का झंडा) के दरमियान मीलों लम्बी-चौड़ी खलीज हाइल हो गयी” जो परिवार और वतन आज तक अपना था वो ‘काफ़िर’ हो गया, बूढी औरत का बेटा उससे कहता है- “तो आख़िरी वक्त में काफ़िरों से गत बनवाओगी?” क्या मालूम तुम्हें कि काफ़िरों ने मासूमों पर तो और ज़ुल्म ढाए हैं, अपना वतन होता तो जान-ओ-माल का तो इत्मिनान रहेगा” और इसी भावना के साथ बूढी औरत के बेटे और बहु घर छोड़कर अपने वतन ‘पाकिस्तान’ जाने के लिए सामान बाँधने लगे लेकिन उस बूढी औरत ने जाने से साफ़ इनकार कर दिया, जिस मिट्टी पर इतने बरस जी उसी मिट्टी पर मरना भी चाहती थी।


हिन्दू परिवार के मुखया रूपचंद जी अपनी आँखों के सामने यह बिखराव देख रहे थे जिस परिवार (मुस्लिम परिवार ) का उत्तरदायित्व उन्होंने अपने दोस्त के जाने के बाद अपने ऊपर लिया था उसकी रक्षा भी वह न कर पा रहे थे, उन जड़ों की रक्षा जिसका आधार ही प्रेम था वह विभाजन के कारण गलती जा रही थी, लेकिन विभाजन से भी ऊपर था ‘अपनत्व’ , रूपचंद जी, बूढी औरत के बच्चों को वापस ले आए ‘भाभी देखो तुम्हारे नालायक लड़कों को लोनी जंक्शन से पकड़ कर लाया हूँ, भागे जाते थे बदमाश कहीं के।पुलिस सुपरिटेंडेंट का भी एतबार नहीं करते थे।..... फ़िर दो गर्म-गर्म मोती लुढ़क कर रूपचंद जी के झुर्रियोंदार हाथ पर गिर पड़े।

जड़ों को अपनत्व की भावना ने गलने नहीं दिया।

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2 Comments


Mukul Gupta
Mukul Gupta
Jun 06, 2022

बढ़िया लेख लिखा है, ये कहानी नहीं पढ़ी थी ।आपने जो अंश लिखे हैं बहुत अच्छे लगे, अब ये कहानी भी पढूंगा। इतने अच्छे लेख लिखती रहिए..

शुक्रिया😍

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ateeksha
Jun 06, 2022

Wah ..

Bahut achha likha hai..


Agle lekh ka intezar rhega

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